माँ सरस्वती की वंदना


विनती करूँ मैं आज, तेरी मातु शारदे
दूर करो मोह,तम जड़ता को जग़ से
वास जन-जन के हृदय में तुम आज करो
झूम उठें स्वर, ज्ञान वीणा की झंकार से।

वाणी की हो स्वामिनी, दो ज्ञान ऋत शब्दों का
हो तेज पूर्ण जग, भागे तम ज्ञान दीप से
तुम हो उदार भावे,होतीं आद्र भक्त कष्ट में
रखो लाज आज, मत टारो मुझे द्वारे से।

दो शक्ति कि मिटा सकें, हम दर्द को जहान से
दो दिव्य ज्ञान दान, दूर अंधकार को करें।
वतन की रक्षा कर सकें , वह बाहुबल पैदा करो
    हर दिल में दो वह प्यार कि सब साथ ही जीएँ-मरें।
हर विपद में धीरज रहे,सद्मार्ग को भूलें नहीं
   हर पथ का पाठक उन्नति की ओर ही हम रुख करें।


रचना-1
तुम
तुम भूल तो सकते हो मेरे दोस्त
कुछ समय के लिए
उन शाश्वत सत्यों को
 और रख सकते हो
  छलावे में अपने आप को
  उन, मिथ्या और
   क्षणिक सुखों की
  
चासनी में डुबोकर
  जिनके सामने,
  
आगे-पीछे
  या फिर
  
ऊपर और नीचे
  तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता।
  कोई दर्पण
   जो तुम्हें
  तुम्हारा
  असली चेहरा
  
दिखाने की कोशिश करता है,
  
तुम्हारा अहं,
  
उसे चकनाचूर कर देता है।
 तुम्हें याद भी होगा
 या कहूं कि
 तुम्हें फुर्सत ही कहाँ है
 जो ये जानो कि
 अब तक कितने दर्पण,
 
तुम्हारी,
 
बेरहमी का शिकार हुए हैं।
 ऐसा हो कि
 एक दिन
 उनके टुकडे
 बिखरते-बिखरते
 इतने हो जायें कि
 
घर से बाहर निकले, तुम्हारे हर कदम को
 लहू-लुहान कर दें।
 तब,
 
और तब,
 
क्या होगा मेरे दोस्त,              
 जब गुजर जाएगा वह, जिसे,
 
आज तक,
 
तुम रोक पाए हो
  मैं
 और कोई अन्य ही।
 सच तो ये है कि
 वह अकेला ही नहीं गुजरता
 बल्कि अपने साथ
 सब कुछ,
 
हाँ-हाँ ... ..... कुछ
 बदलते हुए गुजरता है।
 और तब,
 
बियावान जंगल में
 भटक गए प्राणी-सा
एकाकी मन,
 
चीत्कार करता है,
 
छटपटाता है
 हा-हाकार करता है।
 पर,
 
इससे आगे,
 
कर कुछ नहीं सकता,
 
क्योंकि,
 
यही प्रकृति का नियम है।
 इसलिए पुन: कहता हूँ कि
 तुम,
 
भूल तो सकते हो मेरे दोस्त
 कुछ समय के लिए,
 
उन शाश्वत सत्यों को
 पर,
 
नकार नहीं सकते!
 नकार नहीं सकते मेरे दोस्त,!!
 
नकार नहीं सकते!!!

रचना-2
यादें

भोर से दोपहर हुई, फिर शाम घिर आई
किस प्रतीक्षा मे खड़ी तुम पेड  की छाया
ये अदाऐं रुप सागर और तरुणाई
सामने ज्यों रति खड़ी हो धारकर काया
झुनन-झुनन पायल के घुंघरू की रूनझुन
बहक उठा मौसम भी जब गीत कोई गाया
दुखती रगों पर क्यों फिराती हो ये नाजुक कर
शूलों भरी है याद मेरी, और ये काया।

रचना-3

चाँद  तारे  तोड ़कर  लाने की  मत  बात  कर
ठोस धरती पर कदम रख, काम की कुछ बात कर।

जोड़ पाते जो नहीं ,दो जून रोटी भी,उन्हें
हो सके तो इक निबाला देने की कुछ बात कर।

प्यार के झूठे छलाबों ने दिया क्या आज तक
वासना से मुक्त जो, उस नेह की कुछ बात कर।

आदमी ही आदमी का बन गया दुश्मन यहाँ
बीज नफरत के मिटें,ऐसी भी कुछ बात कर।

तोड़ मत पायदान, चढ़कर सीढ़ियाँ ऊँची स्वयं
पंगु भी चढ़ जाय गिरि,ऐसी भी कुछ बात कर।


रचना-4

पतझर के पत्तों सी 
बिखर गई जिन्दगी।

आस्था के बोए थे बीज
सद्गुण तरु अभीप्सा से
उग आईं बैशम्य की 
विशाल डाल डहडही।

कण-कण तृण जोड़ते
अभिलक्ष्य की जुगाड़ में 
अस्ताचल थके पाॅव
मर्माहत    वन्दगी ।

आहत पिन कुशन सा
हर दर्द सोखता रहा
विगलित अरमानों की 
अनुंगूंज शेष रह गई।

कहाँ छिप गये हो
सिद्धान्तों के मूल उत्स
आलोडित मन में अब
बजती ये दुंदुभी।

रचना-5
हाइकु-

1. नेक नीयती
खुशबू गुलाव की
स्वयं फैलतीं।

2. ईश्वर था वो
तकदीर ही भोगी
माता पिता ने।

3. क्यों माॅगता मैं
उसे क्या पता नहीं
हर दिल की।

4. बे-पहचान
अपने ही घरमें
आज इंसान।

5. जितना झुका
सबकी नजरों में
उतना चढ़ा।

6. नैनों की कोर
भीगीं तो बोलीं बोल
बिन बोले ही।

7. मन की व्यथा
हॅसके सुनें सब
कोई न बाॅंटे।

8. क्यों रिरियाते
सब कुछ तय है
नहीं जानते?

9. बरसे मेघ
तृप्त हुई धरती
हरषे वृक्ष।

10. कभी न कभी
पुष्पित होता बांस
रख विश्वास।

रचना-6

हर शहर से एक सी बू आ रही है दोस्तो
सभ्यता इंसानियत को खा रही है दोस्तो।
भूख उदरों की बढ़ी कुछ दानवी ऐसी यहाँ
प्रेम को ही भूख निगले जा रही है दोस्तो।
रेंगती लाशों को तकते चील-कौवे -गिद्ध
मुर्दनी कुछ इस तरह से छा रही है दोस्तो।
हाथ मिलते,शीश झुकतंे,नम्रता का वेश है
किन्तु दिल से बद्दुआ ही आ रही है दोस्तो।
आदमी की जात को तुमने समझ रक्खा है क्या
जात पशुओं की भी अब घबरा रही है दोस्तो।

          रचना-7

मैं लिए तुम्हारी आस यहाँ बैठा हूँ।
मरुथल सी जलती प्यास जगा बैठा हूँ
डाली से टूटे हुए एक पत्ते सा।
जनमों से ठहरे पतझर की ऋतु जैसा
फिर से बसन्त की आस लिए बैठा हूँ।
अपने नीड़ों की ओर उड़ चले पंछी
घिरती रजनी के स्वर में बजती बंसी
मैं लिए पीर संत्रास यहाँ बैठा हूँ।
घर-बाहर एक सरीखा सूनापन है
मन पल-पल किसी प्रतीक्षा में उन्मन है
मैं जीवन को सन्यास बना बैठा हूँ।

रचना-8

जय हो जय हो ,तेरी जय हो
             सीमा पर तैनात सिपाही,तेरी जय हो।
माता जन्म-दात्री माता
उसका ऋणी रहा संसार
लाज दूध की रख जो पाता
गाता यश उसका संसारं
मातृ-भूमि का कर्ज चुकाना
ऐसा दृढ़ निश्चय   हो।
कीर्ति उसी की जग गाता है
जो न कभी फेरे मुँह रण से
हर मौसम भावन आता है
बढ़ते जो नित मिलकर प्रण से।
दिखला देते जौहर अपने
चाहे कोई वय हो।
तेरे ही बल पर सोते हैं
हो    निश्चिंत देशवासी
खिलते उपवन,महके बगिया
होती सबकी दूर उदासी।
रहते खड़े निडर, हिमगिरि से
चाहे कोई भय हो।
     

बाल-कविता   

रचना-1

सूरज


मैं हूँ सूरज भोर का
दुश्मन हूँ तम घोर का।
रोज सबेरे आता हूँ
अपना फर्ज निभाता हूँ
किरणों के तीखे भाले से
तम को मार भगाता हूँ
कलियाँ खिलतीं फूल बिहँसते
चिड़ी चहकती शोर का।
मैं हूँ सूरज भोर का।।
ठीक समय पर पहुँचा करता
नहीं बहाना करता हूँ
सर्दी-गर्मी या वर्षा हो
नहीं किसी से डरता हूँ
बर्फ गिरे, आँधी आये या
आये तूफां जोर का।
मैं हूँ सूरज भोर का।।
बच्चो ! कभी नहीं कम होने
देना अपने साहस को
और कभी मत पास फटकने
देना अपने आलस को
फिर मेरी ही तरह तुम्हारा
स्वागत होगा जोर का।
मैं हूँ सूरज भोर का।।

                       बाल-कविता                    

रचना-2 

 चन्दामामा

चन्दा मामा, चन्दा मामा
मुझको बहुत सताते हो
तकती रहती राह तुम्हारी
नहीं समय पर आते हो।

इतने बड़े हो गये फिर भी
शरम नहीं तुमको आती
आते हो तुम रोज देर से
राह देख मैं सो जाती।
तारों की इस महासभा के
तुम प्रधान बन जाते हो....।

भैया मुझसे रोज पूछता
चाँद कहाँ पर रहता है
क्या खाता है, क्या पीता है
शीत-घाम क्यों सहता है?
कभी चाँद के गाल फूलकर
कुप्पा से हो जाते हैं
कभी पिचक कर रोटी के 
टुकड़े जैसे रह जाते हैं।
भैया की इस अबुझ पहेली,
में क्यों हमें फँसाते हो?...

क्या तुमने भी नेताओं की
तरह घोटाले कर डाले
इसीलिए क्या लगा रखे हैं
अपने होठों पर ताले?
क्या तुमने भी स्विस बैंक में 
अपना खाता खोला है
कहाँ छुपा रक्खा है मामा
टाॅफी वाला झोला है?
छूपे-छुपे क्यों घूम रहे हो
क्यों इतना घबराते हो?........

नहीं किया घोटाला मैंने
नहीं कहीं खाता खोला
दूर हो गया हूँ मैं तुमसे
जब से मनुज मुझ पर डोला
मुझको जब से मानव ने 
कंकड़-पत्थर का बतलाया 
बच्चों मैंने उस दिन से ही
नहंी अभी तक कुछ खाया।
तुमको मैं अच्छा लगता हूँ
मुझको भी तुम भाते हो।.....’’’

                      बाल-कविता                    

   रचना-3 

  रेलगाड़ी

नन्दू जी की गुड़िया बोली
आओ मिलकर खेलें खेल
हो जाते हैं खड़े इस तरह
बन जाती है लम्बी रेल।

खेल रहे हैं बच्चे खेल
छुक-छुक,छुक-छुक चलती रेल।

चिंकी-पिंकी, टिंकू डिब्बे
इंजन राजा भैया
राजुल गार्ड दे रहा सीटी
नाचे ता-ता थैया
डिब्बे बनकर, सब करते हैं
देखो कैसी धक्कम पेल।

नहीं तीसरा दरजा इसमें
नहीं है दरजा पहला
भेद-भाव से दूर बहुत है
कोई न नहला-दहला।

खेल-मेल की इस गाड़ी का
नाम रखा है चुनमुन मेल।
खेल रहे हैं बच्चे खेल
        छुक-छुक,छुक-छुक चलती रेल।
                       बाल-कविता                    

   रचना-4 

  होली

  हो हो हो हो  हैया रे
अब कैसा जाड़ा भैया रे।
आई बसन्त बहार है
फूलों की भरमार है
भीनी बहती ब्यार है
कहती कोयल सार है।
नहाओ गंगा मैया रे......
नाचो-कुदो मस्ती में
आई होली बस्ती में
झूमे टोली जत्ती में
कपड़े रख दो खत्ती में।
मस्त कुलांचें छैया रे........
लाओ पप्पू रंग गुलाल
गले मिलें सब बाल-गुपाल
महक उठे सब घर-चैपाल।

दुहो सबेरे गैया रे.........









              











                            





























2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर आपकी रचनाओं ने मन मोह लिया...तुम नकार नहीं सकते वाकई बहुत ही दमदार रचना है..सूरज और यादें भी अपने आप में बहुत कुछ कह गईं रचनाएं हैं ...बधाई दिनेश जी....

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